"अगर तुम अपनी सांस पर काबू पा सको तो अपनी भावनाओं पर काबू पा सकोगे। अवचेतन सांस की लय को बदलता रहता है, अत: अगर तुम इस लय के प्रति और उसमें होने वाले सतत बदलाव के बारे में होश से भर जाओगे तो तुम अपनी अवचेतन जड़ों के बारे में, अवचेतन की गतिविधि के बारे में सजग हो जाओगे।"
दि न्यू एल्केमी
1) जब भी स्मरण हो, दिन भर गहरी सांस लो, जोर से नहीं वरन धीमी और गहरी; और शिथिलता अनुभव करो, तनाव नहीं।
2) अपनी सांस को देखो, उसका निरीक्षण करो। जब सांस बाहर जाए, उसके साथ जाओ; जब सांस भीतर आए, उसके साथ भीतर आओ। अगर तुम अपनी सांस को देख सको तो वह गहरी, शांत और लयबद्ध होगी। सांस का अनुसरण करके तुम बिलकुल अलग हो जाओगे, क्योंकि सांस के इस सतत अहसास से तुम तुम्हारे मन से दूर हो जाओगे। जो ऊर्जा सामान्यतया सोच-विचार में घूमती है वह देखने में घूमने लगेगी। यह ध्यान की कीमिया है --जो ऊर्जा सोचने में उलझी हुई है उसे निरीक्षण में परिवर्तित करना। कैसे विचारक न होकर द्रष्टा होना। लेकिन अपनी सांस को देखना सहजता से करो, उसे एक काम मत बनाओ।
3) अपनी सांस को जीवन और मृत्यु, दोनों के प्रति एक साथ होश रखने के लिए उपयोग में लाओ। जब सांस बाहर जाती है तब वह मृत्यु से जुड़ी होती है; जब भीतर आती है तब जीवन से। हर प्रश्वास के साथ तुम मरते हो, हर श्वास के साथ तुम जन्मते हो।
जीवन और मृत्यु दो अलग, विभक्त चीजें नहीं हैं , वे एक ही हैं। और प्रति पल दोनों ही मौजूद रहती हैं। तो यह स्मरण रखो: जब तुम्हारी सांस बाहर जाए, अनुभव करो कि तुम मर रहे हो। घबड़ाओ मत। अगर तुम घबड़ाओगे तो सांस विचलित होगी। उसे स्वीकार करो: बाहर जाती सांस मृत्यु है और मृत्यु सुंदर है, वह रिलैक्स करती है।"
ओशो: दि न्यू एल्केमी: टु टर्न यू ऑन # 2